Friday, February 26, 2016

( एक ऐंसा वार्तालाप जो आपको बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देगा। )

प्रशांत अपने परिवार के साथ लद्दाख घूमने गए।
उनके 28 वर्षीय लोकल ड्राइवर का नाम जिगमेत था।
प्रस्तुत है हिमालय की वादियों में घूमते हुए प्रशांत और जिगमेत की बातचीत के कुछ अंश।

प्रशांत---" तुम्हारे परिवार में कौन कौन हैं ? "

जिगमेत---" मेरे माता पिता, मेरी पत्नी और दो बेटियाँ हैं। "

प्रशांत---" इस क्षेत्र के टूरिस्ट सीजन अंतिम कुछ दिन शेष हैं, क्या सीजन के बाद तुम भी, गोवा चले जाओगे, जैसे यहाँ होटलों में काम करने वाले नेपाली वर्कर चले जाते हैं ? "

जिगमेत---" नहीं साहब, मैं यहाँ का लोकल लद्दाखी हूँ इसलिए मैं शीतकाल में कहीं नहीं जाता। "

प्रशांत---" तो फिर शीतकाल में तुम क्या काम करते हो ? "

जिगमेत---" कुछ नहीं। घर में रहता हूँ। "

प्रशांत---" 6 महीनों तक ? अगले अप्रैल महीने तक ? "

जिगमेत---" मेरे पास काम करने का और एक विकल्प है, वो है सियाचिन जाना। "

प्रशांत---" सियाचिन ! तुम वहाँ क्या करते हो ? "

जिगमेत---" वहाँ एक कुली ( Loader ) के रूप में इंडियन आर्मी में काम करता हूँ। "

प्रशांत---" तो क्या तुमने इंडियन आर्मी जॉइन की है ? "

जिगमेत---" नहीं साहब, आर्मी जॉइन करने की मेरी उम्र निकल चुकी है। वहाँ मैं इंडियन आर्मी के लिए ठेके पर काम ( Contract job ) करता हूँ। मेरे साथ मेरे दुसरे ड्राइवर साथी भी होते हैं जो ऑफ सीजन की बेरोजगारी झेल रहे होते हैं। हम 265 किलोमीटर की, 15 दिनों की दुर्गम पैदल यात्रा के बाद सियाचिन बेस कैम्प पहुँचते हैं क्योंकि वहाँ जाने के लिए कोई सड़क नहीं है जिसपर कोई वाहन चल सके। वहाँ हमारा स्वास्थ्य परिक्षण ( medical examination ) किया जाता है और फिट पाए जाने पर, हमें यूनिफॉर्म, जूते, गरम कपड़े, हेलमेट आदि दिए जाते हैं। इसके बाद अगले तीन महीने तक हम वहाँ काम करते हैं। "

प्रशांत---" वहाँ तुम क्या काम करते हो ? "

जिगमेत---" एक तरह से ये कुली का काम है। हम सियाचिन में सामानों को अपनी पीठ पर लादकर एक चौकी से दूसरी चौकी तक लाने, ले जाने का काम करते हैं। वहाँ हवाई साधन द्वारा सप्लाई गिराई जाती है, हम उस सप्लाई को जमा कर पीठ पर लादकर चौकी पहुँचाते हैं।

प्रशांत---" इंडियन आर्मी सामानों की सप्लाई को शिफ्ट करने के लिए खच्चरों या अन्य वाहनों का इस्तेमाल क्यों नहीं करती। "

जिगमेत---" सियाचिन एक ग्लेशियर है साहब, वहाँ ट्रक या अन्य वाहन काम नहीं कर सकते और बर्फ पर चलने वाले स्कूटर बहुत शोर करते हैं जो आस पास मौजूद शत्रुओं का ध्यान आकर्षित करेंगे। मतलब ये कि, किसी वाहन का उपयोग दूसरी तरफ से फायरिंग को निमंत्रण देता है।
हम लोग भी मध्यरात्रि के बाद बाहर निकलते हैं, रात को करीब 2 बजे निकालकर खामोशी से सामान जमाकर बैरकों तक लाते हैं।
यहाँ तक की हम टोर्च का उपयोग तक नहीं करते। खच्चरों और घोड़ों का उपयोग इसलिए भी नहीं किया जाता क्योंकि 18875 फिट की ऊँचाई और शीतकाल के माइनस 50 के तापमान में इन जानवरों का जीवित रहना असंभव है। "

प्रशांत---" इतने कम ऑक्सीजन लेवल वाले क्षेत्र में पीठ पर सामान लादकर तुम कैसे चल पाते हो ? "

जिगमेत---" हम अधिकतम 15 किलो सामान अपनी पीठ पर लादते हैं और अधिकतम 2 घंटे ही काम करते हैं। बाकी के समय हम आराम कर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करते हैं। "

प्रशांत---" तुम्हारा काम तो बहुत जोखिम भरा है। "

जिगमेत---" हाँ साहब, काम तो खतरनाक है। मेरे बहुत से दोस्त अपनी जान गवाँ चुके हैं, कुछ तो गहरी खाइयों में समा गए और कुछ दुश्मनों की गोलियों का शिकार होकर मारे गए। सबसे खतरनाक तो यहाँ की खून को जमा देने वाली ठंड ही है। "

प्रशांत---" ये बड़ी खतरनाक जिंदगी है। "

जिगमेत---" हाँ साहब, लेकिन बेरोजगार रहने से तो बहुत अच्छा है। यहाँ हमें 18000 रुपए प्रतिमाह मिलता है। अपने सारे खर्चे काटकर तीन महीनों में करीब 50000 रुपए बचाकर हम अपने घर लेकर जाते हैं।ये रकम मेरे परिवार और मेरी बेटियों की शिक्षा में बहुत काम आती है। इसके अलावा हमें बहुत गर्व होता है कि, हम इंडियन आर्मी के लिए काम करते हैं। मतलब अपने देश के लिए काम करते हैं। "

प्रशांत और जिगमेत का उपरोक्त वार्तालाप हमें एक अजीब अहसास से परिचित कराता है कि, कैसे कुछ पढ़े लिखे लोग हमारे भारत के टुकड़े कर देना चाहते हैं और कैसे जिगमेत जैसे अशिक्षित लोग देश के लिए अपनी जान लगा देते हैं।

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